Atul Pateriya by Cartoonist Mansoor

Atul Pateriya by Cartoonist Mansoor

Sunday, April 25, 2010

मोदी-थरूर और भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा मीडिया ट्रायल

10-11 अप्रैल को सोशल नेटवर्किंग साइट ‘ट्विटरज् पर आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी के लिखे एक छोटे से ‘ट्वीट'ने भारतीय मीडिया के इतिहास के संभवत: सबसे बड़े ‘मीडिया ट्रायल' की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। 12 से 18 अप्रैल तक, सात दिन भारतीय मीडिया ने विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर का सुनंदा पुष्कर थ्योरी पर जमकर ‘ट्रायल' किया। हालांकि विपक्षी राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी ने 13 अप्रैल को ही थरूर के इस्तीफे की मांग कर दी थी, लेकिन थरूर से इस्तीफा लेने में सरकार और कांग्रेस को छह दिन लग गए। कांग्रेस आलाकमान ने फैसला प्रधानमंत्री पर टाल दिया, जो कि 14,15 को वाशिंगटन में थे, लेकिन उनके लौटने तक मीडिया ट्रायल में उलङो थरूर के भाग्य का फैसला लगभग हो चुका था। सुनंदा-थरूर थ्योरी पर मीडिया में हर घंटे ‘सबूतों का पोस्टमार्टम'चल रहा था। ..और छह दिनों के अंदर ‘मामले की पूरी छानबीन' कर मीडिया ने अपना ‘फैसला' सुना दिया था कि- थरूर का जाना तय। प्रधानमंत्री ने सातवें दिन यानि 18 अप्रैल की रात मीडिया के ‘फैसले' पर मुहर लगा दी। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ज्यों का त्यों बना रहा कि क्या थरूर वाकई दोषी थे? क्या उन पर दोष सिद्ध होने के प्रमाण प्रधानमंत्री के सामने थे? यदि थे, तो सार्वजनिक क्यों नहीं किए गए? यदि थे तो किए जाने चाहिए थे, आखिरकार यह एक निर्वाचित युवा नेता और केंद्रीय मंत्री के चरित्र पर उठाए गए सवालों के साथ-साथ सरकार की जनता के प्रति पारदर्शिता का विषय भी था। सवाल मीडिया की कार्यप्रणाली पर भी उठता है। इस बात पर संशय बना रहेगा कि उक्त संपूर्ण मसले पर क्या मीडिया को इंस्ट्रूमेंट के रूप में इस्तेमाल किया गया? और यह भी कि मीडिया ने इस पूरे घटनाक्रम में जो तथ्य प्रस्तुत किए उनमें से 99 फीसदी ‘‘सूत्रों के हवाले'' से थे। ‘सूत्रों' ने जो भी बताया, मीडिया ने प्रस्तुत किया। इस मामले में सूत्रों के ‘सूत्रधारों' की भी भूमिका स्पष्ट रूप से निहित थी। क्या मीडिया ने इस भूमिका को ‘एडिट' किया। सूत्रों से मिल रहे तथ्यों को उनके सूत्रधारों की पृष्ठभूमि पर परखा गया? संभवत: कहीं न कहीं कमी बनी रही। नहीं तो थरूर का पक्ष भी तर्क और साक्ष्यों पर परखा जा सकता था। इस बात पर तवज्जो नहीं दी गई। क्या यह मीडिया की गैरजरूरी मजबूरी नहीं कि जब वह ट्रायल करने पर उतरता है तो ‘अपनी थ्योरी' को सच साबित होते देखने पर आमादा हो जाता है?
मीडिया मॉनीट¨रग संस्था सीएमएस मीडिया लैब ने इस पूरे घटनाक्रम के दौरान की गई अपनी एक स्टडी में बताया कि अंग्रेजी चैनल एनडीटीवी 24*7 ने इस विवाद की खबरों पर एक हफ्ते में सबसे ज्यादा 668 मिनट खर्च किए जबकि अंग्रेजी के ही अन्य चैनल सीएनएन आईबीएन ने 617 मिनट और 30 सेकेंड का समय खर्च किया। इनके अलावा पूरा भारतीय मीडिया थरूर-मोदी पर लगातार खबरें देता रहा। 12 अप्रैल से लेकर आज तक यह विषय मीडिया ट्रायल के घेरे में है। सूत्रों के हवाले से तमाम खबरें आ रही हैं। कुछ का खंडन हो रहा है तो कुछ रहस्य को गहराती जाती हैं।
थरूर के बाद ललित मोदी का भी जमकर मीडिया ट्रायल हुआ। मीडिया के जरिए तमाम आरोप मोदी पर जड़े गए हैं। ताज्जुब करने वाली बात है कि आरोप लगाने वाले लोग न के बराबर हैं, परिदृश्य से नदारद हैं, लेकिन आरोपों की कमी नहीं है। आरोप सूत्रों के हवाले से लग रहे हैं? सूत्रधार कौन है? पता नहीं। मीडिया को पता है, लेकिन बता नहीं सकता। आख़िर सूत्रों के साथ विश्वसनीयता बनाए रखना भी तो एक उसूल है।
मोदी चालाक हैं। वह भांप गए। उन्होंने मीडिया ट्रायल को बारीकी से परखकर बहुत बढ़िया दांव चला है। उन्होंने 26 को होने वाली बहुप्रतीक्षित बैठक में आने का एलान करते हुए आज कहा कि- ‘‘मैं अध्यक्ष और आयुक्त के रूप में संचालन परिष की बैठक में हिस्सा लूंगा और इसकी अध्यक्षता करूंगा। मैंने संचालन परिष का एजेंडा जारी कर यिा है।'यही नहीं इसके तुरंत बा मोदी ने एकल एजेंडा भी मीडिया में जारी कर कहा कि परिष के सस्यों को उन्हें अपनी शिकायतें लिखित में और स्तोजी सबूत के साथ ेनी होंगी। मोदी ने कहा, ‘संचालन परिष के अध्यक्ष, परिष के किसी अन्य सस्य या भारतीय क्रिकेट बोर्ड के खिलाफ परिष के सस्यों की किसी भी लिखित शिकायत पर चर्चा एजेंडा में शामिल है।' उन्होंने मीडिया के माध्यम से कहा, ‘संचालन परिष के सस्यों से आग्रह किया गया है कि '26 अप्रैल की सुबह होनेोली बैठक में इस तरह की सभी शिकायतों को अध्यक्ष और आयुक्त के पास जमा करायें। इन शिकायतों के साथ 'संबंधित दस्तावेज भी' ताकि उनका जाब यिा जा सके।
मोदी को पता है कि उन पर लगाए जा रहे तमाम आरोप ‘सूत्रों के हवाले से' हैं। इसलिए उन्होंने सीधे इसी जगह चोट की है। अब उनके विरोधियों के पास खुलकर सामने आने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। उन्होंने न केवल विरोधियों को सामने आने का सीधा न्योता दिया है बल्कि अपने खिलाफ शिकायतों को संबंधित दस्तावेज के साथ मांगकर उन्होंने मीडिया ट्रायल को भी सीधी चुनौती दे डाली है। अब न केवल मीडिया बल्कि उनके विरोधी संचालन परिष सस्यों के लिये भी दस्तावेजी सबूत पेश करना मुश्किल होगा क्योंकि ऐसे दस्तावेज जांच एजेंसियों के पास ही हो सकते हैं।
अब मोदी विरोधियों के पास ए क ही रास्ता है किसी भी सूरत में मोदी को इस बैठक में हिस्सा लेने रोकें। और उनके पास समय है केवल 12 घंटे का।

Tuesday, April 20, 2010

हम एक ऐसी व्यवस्था में जी रहे हैं जिसकी कमान मूर्खो के हाथ में है

थरूर-मोदी के पचड़े में उलङो मीडिया ने देश को ऐसा उलझाया कि बंगलुरु में आतंकवादियों से मिली सामयिक चुनौती की गंभीरता पर चर्चा करना किसी ने उचित नहीं समझा। न तो संसद में बात हुई और न ही मीडिया ने मुद्दा उठाया कि- यदि हाल में आईपीएल मैच के दौरान बंगलुरु के चिन्नास्वामी स्टेडियम के चारों ओर बिछाया गया 50 किलो विस्फोटक यदि सैट टाइमर के मुताबिक फट जाता तो कम से कम 20 हजार और अधिक से अधिक 50 हजार निर्दोष लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन होता? आईपीएल आयोजक, कर्नाटक सरकार, कर्नाटक पुलिस, तमाम खुफिया एजेंसियां और एनएसए.. कौन?
यह तो गनीमत थी कि स्टेडियम के चारों ओर बिछाए गए बमों का टाइमर फेल हो गया और समय से पहले हुए एक विस्फोट के बाद सभी बम निष्क्रिय कर दिए गए। लेकिन तथ्य चौंकाने वाले हैं कि जब मैच हो रहा था, स्टेडियम के चारों ओर बमों का जखीरा मौजूद था, जिसे दूसरे दिन तलाशा जा सका। इससे बड़ी लापरवाही का उदाहरण शायद ही कहीं देखने को मिले कि मैच से पहले स्टेडिमय के गेट पर एक बम विस्फोट हो जाता है और बावजूद इसके वहां मैच संपन्न कराया गया जबकि स्टेडियम परिसर के बाहर बमों के मिलने का सिलसिला अगले 24 घंटों तक चलता रहा। धन्य है!
आतंकवादी खुलकर चुनौती दे चुके थे कि आईपीएल और कॉमनवैल्थ उनके निशाने पर होंगे, लेकिन बंगलुरु की इस ताजी घटना ने साबित कर दिया है कि हम एक ऐसी व्यवस्था में जी रहे हैं जिसकी कमान मूर्खो के हाथ में है। बार-बार गलती, बार-बार चूक करने वाले मूर्ख। भगवान मालिक है।

केंद्र सरकार और कांग्रेस आलाकमान बैकफुट पर

शशि थरूर बनाम ललित मोदी के रूप में शुरू हुए इस संपूर्ण घटनाक्रम में बतौर विदेश राज्य मंत्री थरूर को बलि का बकरा बना देना गले नहीं उतरता। यह प्रकरण सीधे तौर पर राजनीतिक नूराकुश्ती प्रतीत होता है। न तो केंद्र सरकार को और न ही कांग्रेस या भाजपा अथवा किसी अन्य राजनीतिक दल को पिछले तीन साल से आईपीएल के कारोबार से कोई सरोकार था।
क्या सरकार, वित्त मंत्रालय और आयकर विभाग, तमाम जिम्मेदार संस्थाएं अब तक मोदी के ट्वीट का इंतजार कर रही थीं कि खुद आईपीएल जब तक यह न बताए कि फ्रैंचाइ निवेश अथवा अन्य वित्तीय मामलों में गड़बड़ घोटाला है तब तक एक्शन में नहीं आएंगे।
कई सवाल अब भी बरकरार हैं। क्या थरूर के ऊपर लगे आरोप तर्कपूर्ण कहे जा सकते थे? और यह भी कि क्या उन पर लगे आरोप साबित हुए? यदि नहीं तो किस आधार पर कांग्रेस आलाकमान और प्रधानमंत्री ने थरूर को विदेश राज्य मंत्री जसे पद से हटा दिया? कांग्रेस थिंक टैंक से इस तरह की जल्दबाजी की वाक़ई उम्मीद नहीं थी। उसे इस मामले (थरूर के) में भाजपा के साथ नूराकुश्ती में उलझने की आवश्यक्ता नहीं थी। भाजपा ने आरोप लगाया था कि थरूर ने बतौर केंद्रीय मंत्री अपने पद का दुरुपयोग किया। उसका आरोप था कि थरूर ने अपनी महिला मित्र को आईपीएल फ्रैंचाइजी में गैरवाजिब लाभ दिलाया। मंत्री पद से हटाकर कांग्रेस और सरकार ने थरूर को अपरोक्ष अपराधी घोषित कर दिया। जबकि थरूर लगातार कहते रहे कि पहले इन आरोपों की जांच कराई जाए। मंत्री पद से हटाए जाने के बाद भी उन्होंने संसद में प्रधानमंत्री से यही मांग की।
राजनीतिक प्रपंचों और कूटनीति से परे यदि थरूर के पक्ष पर ग़ौर किया जाता तो स्पष्ट था कि उन पर लगे आरोपों से यह साबित नहीं हो सकता था कि उन्होंने कोच्चि फ्रैंचाइजी मामले में किसी भी रूप में अपने मंत्री पद का दुरुपयोग किया। उनकी महिला मित्र सुनंदा पुष्कर को कोच्चि फ्रैंचाइजी(रांदेवू) ने जिस भी रूप में इक्विटी दी, यह उस फ्रैंचाइाी का निजी मामला था। इससे यह साबित नहीं होता कि थरूर ने इसके लिए दबाव बनाया। और यह भी साबित नहीं हो सकता कि बतौर विदेश राज्य मंत्री वह किसी तरह का दबाव बनाने की स्थिति में थे। पद का दुरुपयोग तो उस स्थिति में होता जब वह इसका दुरपयोग करने की स्थिति में होते, जसे कि पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह थे। लेकिन थरूर के मामले में यह तथ्य अहम था कि बतौर विदेश राज्य मंत्री वह आईपीएल अथवा कोच्चि फ्रैंचाइजी पर किसी तरह का दबाव बनाने की स्थिति में नहीं थे। आईपीएल का विदेश मंत्रालय से सीधे तौर पर कोई गंभीर वास्ता भी नहीं होता है। तो फिर बिना किसी नतीजे पर पहुंचे प्रधानमंत्री/कांग्रेस आलाकमान ने थरूर को दोषी करार देकर क्या संदेश देने की कोशिश की? क्या इसे भाजपा से भयभीत होने के रूप में देखा जाए? अथवा, नैतिक जिम्मेदारी के रूप में उठाया गया कदम माना जाए? दोनों ही तथ्य यह स्थापित करते हैं कि थरूर अंदरूनी और बाहरी राजनीति का शिकार बन बैठे।
निष्कर्स यह कि आईपीएल की पिच पर कांग्रेस और सरकार दोनों बैकफुट पर जा खड़े हुए। थरूर का नाम आते ही सरकार ने तमाम जांच एजेंसियों को काम पर लगा दिया। बेहद चौंका देने वाला तथ्य कि आईबी और रॉ जसी गुप्तचर संस्थाएं भी जांच में लगा दी गईं। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी थरूर पर लगे आरोपों की जांच देख रहे थे और नतीजा यह रहा कि थरूर की छुट्टी कर दी गई, बिना यह सामने लाए कि उन पर लगे आरोप साबित हुए अथवा नहीं।
एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि सरकार और उसके तमाम जिम्मेदार विभाग इस मामले (भाजपा के थरूर पर आरोप लगाने) के बाद आईपीएल की कार्यप्रणाली और उसके वित्तीय लेनदेन को जांचने-परखने के लिए जिस तरह हरकत में आए, पिछले तीन साल से क्या वह गहरी नींद में थे?
अब मोदी को हटाने का दबाव बन रहा है। ज़ाहिर है सरकार से बैर लेकर आईपीएल को नहीं चलाया जा सकता। मोदी को हटाकर हिसाब बराबर करने की कोशिश हो रही है। मोदी को हटाए जाने से पहले भी इस बात पर ग़ौर किया जाना चाहिए कि मोदी पर आरोप क्या हैं और क्या आरोप सिद्ध हुए हैं? यदि ऐसा नहीं होता तो स्पष्ट हो जाएगा कि थरूर और मोदी की बलि देकर आईपीएल के रहस्य पर पर्दा डालने की कोशिश सफल हुई।

Wednesday, April 14, 2010

भारत में लड़कों की कमी नहीं.. साइना नेहवाल

हमारी टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा तो शादी करके पाकिस्तान चल दी हैं लेकिन भारत की उभरती तेज-तर्रार बैडमिंटन सनसनी साइना नेहवाल का कहना है कि वह देशवासियों की भावनाओं से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं और भविष्य में कम से कम किसी पाकिस्तानी से तो शादी नहीं करेंगी। भारत की इस नई स्पोर्ट्स आइकन ने हमें विशेष साक्षात्कार में खेल और निजी पहलुओं पर बेबाक राय रखी। साक्षात्कार के प्रमुख अंश.. भारतीय बैडमिंटन के भूत, वर्तमान और भविष्य को किस तरह देखती हैं? भूत में प्रकाश पादुकोण सर और गोपीचंद सर ने जो शुरुआत की उसे आज मैं आगे बढ़ा रही हूं। भारत में इस खेल को अब पहचान मिल रही है। मुङो उम्मीद है कि भविष्य में यह खेल यहां अपना स्थान बना लेगा। खेलों के मामले में भारत को फिलहाल किस मुकाम पर देखती हैं? हम बहुत ही पीछे हैं। आप चीन को देखिए, जनसंख्या और संसाधनों के लिहाज से हमारे समकक्ष ही है, लेकिन हम खेलों के लिहाज से उनसे सदियों पीछे हैं। फिलहाल भारत को स्पोर्टिग नेशन तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। हमें लंबा रास्ता तय करना होगा। भारत में क्रिकेट के विषय में क्या कहेंगी? कोई शक नहीं कि यह क्रिकेट क्रेजी देश है। आप कहते भी हैं कि यह यहां धर्म जसा है। लेकिन केवल क्रिकेट की सफलता या लोकप्रियता को देखकर आप यह नहीं कर सकते कि हमारे यहां खेलों का माहौल है और हम स्पोर्टिंग नेशन हैं। दूसरे खेलों की अपेक्षा यहां क्रिकेट क्यों लोकप्रिय है? क्या सोचती हैं? मेरा मानना है कि 1983 के क्रिकेट विश्वकप की जीत के बाद से क्रिकेट ने यहां लोकप्रियता की जो नींव रखी, उस पर मंजिलें बनती चली गईं। इसका श्रेय न केवल कपिल देव या सचिन तेंदुलकर जसे क्रिकेटर्स के प्रदर्शन को जाता है बल्कि बीसीसीआई के कुशल नियोजन और प्रबंधन को भी जाता है। दूसरे खेलों में यही होता आया है कि यदि खिलाड़ी अपने बूते बड़ी उपलब्धि हासिल भी करते हैं तो नियोजन और प्रबंधन की कमी के चलते न तो उन्हें व्यक्तिगत लाभ मिल पाता है और न ही उनके खेल को। क्रिकेट को छोड़ दें तो किसी खेल और खिलाड़ी की सफलता के पैमाने को किस तरह आंकेंगी? सबसे पहले तो अच्छा और निरंतर अच्छा प्रदर्शन बहुत जरूरी है। वो चाहे बैडिमिंटन में हो या टेनिस में या फिर बॉक्िंसग में, लगातार बड़ी उपलब्धियां हासिल करते जाना जरूरी है। लोकप्रियता भी बहुत बड़ा फैक्टर है। बिना लोकप्रियता के न तो खेल और न ही खिलाड़ी आगे बढ़ सकता है। बिना समर्थन के आप बड़ी उपलब्धियां लगातार हासिल नहीं कर सकते। यदि प्र्दशन और लोकप्रियता आपके पास हैं तो एंडोर्समेंट भी होगा और बाकी सबकुछ भी होगा। आपको क्या लगता है, भारत में पब्लिक डिमांड में बने रहने के लिए क्या-क्या जरूरी है? सब मीडिया की महिमा है। मीडिया वही दिखाता है जो लोग देखना चाहते हैं। या तो आप कुछ बड़ा करते रहिए या फिर कंट्रोवर्सी में बने रहिए, लोकप्रिय बने रहेंगे। यहां क्रिकेट की सफलता के पीछे भी मीडिया और कंट्रोवर्सी, यह दोनों फैक्टर काम करते आ रहे हैं। नहीं तो हालात यह हैं कि आप भारत के लिए ओलंपिक मैडल भी जीत लो तो लोकप्रियता आपके लिए चार दिन की चांदनी जसी ही होगी। उसके बाद कोई आपको पूछेगा तक नहीं। बीजिंग ओलंपिक के पदक विजेताओं का हाल देख लीजिए। अभिनव बिंद्रा ने स्वर्ण पदक जीता, लेकिन आज उनकी चर्चा कौन करता है। सुशील कुमार ने कांस्य जीता लेकिन मुङो नहीं लगता कि भारत में उन्हें कोई पहचान मिल पाई हो। विजेंदर सिंह खुद के प्रयासों से कभी-कभी चर्चा में बने रहते हैं। कुलमिलाकर मेरा भ्रम टूट चुका है। मैं बीजिंग ओलंपिक से पहले तक यह सोचती थी कि यदि हममें से किसी खिलाड़ी ने भारत के लिए ओलंपिक पदक जीत लिया तो वह सचिन तेंदुलकर की तरह लोकप्रिय हो जाएगा, लेकिन अब स्थिति साफ है। यहां लोकप्रियता के पैमाने कुछ और ही हैं। सानिया मिर्जा और शोएब मलिक की शादी को लेकर चल रही ताजा कंट्रोवर्सी के बारे में क्या कहेंगी? यदि शोएब पाकिस्तानी न होते तो शायद वह (सानिया) इस तरह की कंट्रोवर्सी में नहीं पड़ती। भविष्य में यदि आपको इस तरह की कंट्रोवर्सी की सामना करना पड़ जाए तो? मुङो नहीं लगता कि मैं कभी इस तरह की कंट्रोवर्सी में पड़ूंगी। शादी और अफेयर फिलहाल दूर की बात हैं, लेकिन भविष्य में इतना तो असंभव है कि मैं कभी किसी पाकिस्तानी लड़के से रिश्ता जोड़ने के बारे में सोचूं भी। सानिया का प्रकरण ही हम लोगों के लिए काफी है। मेरा मानना है कि मैं अपने देश का प्रतिनिधित्व करती हूं इसलिए अपने देश के लोगों की भावनाओं को भी समझती हूं। और जहां तक शादी की बात है तो मुङो लगता है कि भारत में एक से बढ़कर एक लड़के मुङो मिल जाएंगे। इसके लिए पाकिस्तान या दुबई या कहीं और जाने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। ..तो आप देश के बच्चों और युवाओं को यही संदेश देंगी? बिल्कुल, मैं यही कहूंगी कि आप खेल को करियर के रूप में आजमा सकते हैं। आगे आंए देश के लिए खेलें। देश के गौरव को बढ़ाने का सपना देखें और देश के लिए जीतकर उसे पूरा करें। मैं भारत के लिए जीतती हूं, यह मेरे लिए सबसे संतोषप्रद है। मैं भारत के लिए खेलती हूं और मुङो भारतीय होने पर गर्व है। आप सभी की सोच भी यही होनी चाहिए। भारत में क्रिकेट के बाद बैडमिंटन वह खेल है जो गली-मोहल्लों और आंगनों में नेट लगाकर या बिना नेट के बड़े चाव से खेला जाता है। फिर भी पीछे क्यों बना हुआ है? मैं खुशकिस्मत थी कि मैंने आंगन की जगह सीधे कोचिंग सेंटर में इस खेल की शुरुआत की, लेकिन यह सच है कि भारत में यह खेल घर-घर के बच्चे खेलते हैं। गलियों में आप छोटे बच्चों को हाथ में रैकेट लिए देख सकते हैं। जरूरत है सही कोचिंग की और उचित मार्गदर्शन की। पेरेंट्स बच्चों को यह उपलब्ध करा सकते हैं। सरकार और खेल संघों की भूमिका को किस तरह आंकती हैं? वे चाहते तो हैं कि हमारे यहां खेलों का विकास हो लेकिन केवल चाहने से कुछ नहीं होता। आपको चीन से सीखना चाहिए। उसने ठान लिया कि उसे ओलंपिक में अव्वल रहना है तो उसने इसे करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। उसने खुद खिलाड़ी तैयार किए और वो भी विजेता खिलाड़ी। खेलों के विकास के लिए क्या सुझाव दे सकती हैं? हमारे यहां जो हालात हैं उसे देखकर तो यही कहूंगी कि बच्चे खुद खेलना सीखें। खेलों में रुचि लेना शुरू करें। पेरेंट्स को भी आगे आना होगा। इस परंपरागत अवधारणा को छोड़ दें कि पढ़ाई करके इंजीनियर और डॉक्टर बनना ही जीवन की उपलब्धि है। खेलों में आगे बढ़कर भी आप शोहरत, दौलत और बड़े लक्ष्य हासिल कर सकते हैं। दरअसल, हम हिंदुस्तानी रिस्क लेने से डरते हैं। हमें लगता है कि बच्चों को पढ़ाओ-लिखाओ और रोजगार से लगा दो। इसके अलावा हमें जीवन में शायद कोई अन्य विकल्प दिखता ही नहीं। हम भूल जाते हैं कि दुनिया में, और दुनिया ही क्यों भारत में भी अरबपति खिलाड़ियों की कमी नहीं है। हमें अपनी सोच बदलनी होगी। अपने नए और खूबसूरत लुक्स के बारे में कुछ बताइये। इसके लिए कुछ खास कर रही हैं? सही कहा आपने, मैं आजकल अपने लुक्स पर भी ध्यान दे रही हूं। फिगर पर भी। अब तक मैं ध्यान नहीं देती थी। फिटनेस को लेकर मैं काफी सजग हो चुकी हूं। हरियाणा के बारे में क्या राय है? हालांकि लोग मुङो हैदराबादी बाला कहते हैं, लेकिन हरियाणा मेरी जन्मभूमि है और मुङो जाट होने पर बेहद गर्व है।
सरकार और नक्सलीयों के बीच चल रहा है..शह और मात का खेल!
(छत्तीसगढ़ से लौटकर)
सरकार (केंद्र/राज्य) के सामने सबसे बड़ी चुनौती है रेड कॉरिडोर (लालगढ़) के जंगलों में बसने वाले उन लाखों-करोड़ों निर्दोष आदिवासियों को मुख्य धारा में लाने की जोकि न बेहद पिछड़े हुए हैं बल्कि नक्सल-वाद के बहकावे में फंसते जा रहे हैं। यदि आदिवासी बीच में न होते तो संभव था कि सरकार आर-पार की लड़ाई लड़ने में में देर न लगाती। सेनाएं लालगढ़ के जंगलों में घुसकर यह युद्ध बहुत पहले ही जीत चुकी होतीं। लेकिन मुश्किल तो यही है कि दुश्मन सीधे तौर पर सामने नहीं है। निर्दोष आदिवासी और नक्सली, यह दो विपरीत तथ्य इस तरह आत्मसात हो चुके हैं कि युद्ध का मतलब होगा ‘घुन के साथ गेंहू का पिसना'। बड़ी तादाद में निर्दोष आदिवासियों के संहार का भय बना रहेगा। और इसी बात का लाभ नक्सल रणनीतिकार बखूबी उठा रहे हैं। उन्होंने बड़ी तादाद में आदिवासियों को बरगलाकर गुरिल्ला वॉर में माहिर कर दिया है। वनाच्छादित लालगढ के हजारों गांवों में बसने वाले लाखों आदिवासी ‘दिन में किसान और रात में सैनिक' वाली भूमिका में आते जा रहे हैं। हाल ही में बस्तर के दंतेवाड़ा में यही हुआ। सीआरपीएफ कैंप पर हमला करने के लिए पिछले एक माह से आस-पास के गांवों में लगभग एक हजार नक्सली पूरे साजोसामान के साथ डेरा डाले हुए थे, लेकिन उन्हें गांव वालों का इतना समर्थन था कि न तो स्थानीय पुलिस को, न ही सुरक्षाबलों को और न ही इंटेलिजेंस को इस बात की भनक लग पाई।
स्पष्ट है कि सलवा-जुडूम जसे आंदोलन चलाने वाली छत्तीसगढ़ सरकार ने आदिवासियों का अबतक मिला थोड़ा बहुत समर्थन भी खो दिया है। इसके पीछे एक बड़ी वजह राज्य सरकार की ताजा औद्योगित नीति भी बताई जा सकती है। इस नीति को नक्सलीयों ने आदिवासी-विरोधी बताते हुए आदिवासियों को अपने खेमे में करने का काम तेज कर रखा है।
दस नवंबर 2009 को जारी अधिसूचना में ‘औद्योगित नीति 2009-२०१४' एक नवंबर 2009 से 31 अक्टूबर २०१४ की अवधि के लिए लागू की गई। इस औद्योगिक नीति का मुख्य ध्येय ‘राज्य के खनिज व वन्य संसाधनों का औद्योगिक उपभोग' और इसके लिए राज्य में औद्योगिक निवेश को प्रोत्साहन देना बताया गया है। ‘औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन हेतु आर्थिक दृष्टि से पिछड़े क्षेत्रों' की सूची में नक्सल-गढ़ के तमाम इलाके (बस्तर- दंतेवाड़ा, नारायणपुर, बीजापुर, जशपुर, सरगुजा, कोरिया, कांकेर और बस्तर के सभी विकासखंड, दुर्ग, राजनांदगांव, धमतरी, रायगढ़, महासमुंद, कबीरधाम, जांजगीर-चांपा, कोरबा के सभी विकासखंड और रायपुर, बिलासपुर के 14 विकासखंडं) शामिल हैं।
नक्सली नेता आदिवासियों को इस औद्योगिक नीति का हवाला देते हुए बरगला रहे हैं कि खनिज और वन संपदा का दोहन करने के लिए सरकार उनकी जमीन और जंगलों पर कब्जा कर लेगी और बड़ी-बड़ी कंपनियां उन्हें अपना गुलाम बना लेंगी। सरकार और नक्सली रणनीतिकारों में ‘माइंड-गेम' चल रहा है। सरकार का पूरा ध्यान आदिवासियों को नक्सली खेमे में जाने से रोकने पर है। उधर, नक्सली भी आदिवासियों को अपने साथ मिलाने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं।
अब तो सरकार तमाम समाचार पत्रों में बड़े-बड़े विज्ञापन जारी कर आदिवासियों से मुख्य धारा में जुड़ने की अपील कर रही है। इन विज्ञापनों में बताया जा रहा है कि किस तरह नक्सलवादियों के शिकंजे में पड़कर आदिवासी पिछड़ते जा रहे हैं। सरकार न केवल विज्ञापनों के माध्यम से बल्कि फिल्मों के माध्यम से भी अशिक्षित आदिवासियों को नक्सलीयों के खेमे में जाने से रोकने की कोशिश में लगी हुई है। गांव-गांव जाकर सरकारी कर्मचारी आदिवासियों को वीडियो पर देशप्रेम पर आधारित फिल्में और विशेष वृत्तचित्र दिखा रहे हैं। वहीं, नक्सली भी पीछे नहीं हैं। नक्सली आदिवासियों को ऐसी हिंदी फिल्में दिखा रहें हैं, जिनमें सरकारी तंत्र को दमनकारी बताया जाता है, जिनमें पुलिस, प्रशासन और नेताओं को भ्रष्ट और गरीबों का शोषण करने वाला बताया जाता है और फिल्म के नायक के पास बंदूक उठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। सूत्रों की मानें तो 90 के दशक में बनीं अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती की कुछेक हिंदी फिल्मों का प्रदर्शन छत्तीसगढ़ के पिछड़े इलाकों में वीडियो के माध्यम से नक्सलीयों द्वारा खुलकर किया जाता है। जाहिर है, इस लड़ाई को जीतने की मुख्य कड़ी ‘आदिवासी' ही हैं। वे जिसके साथ होंगे, उसका पलड़ा भारी होगा।