Atul Pateriya by Cartoonist Mansoor

Atul Pateriya by Cartoonist Mansoor

Wednesday, April 14, 2010

सरकार और नक्सलीयों के बीच चल रहा है..शह और मात का खेल!
(छत्तीसगढ़ से लौटकर)
सरकार (केंद्र/राज्य) के सामने सबसे बड़ी चुनौती है रेड कॉरिडोर (लालगढ़) के जंगलों में बसने वाले उन लाखों-करोड़ों निर्दोष आदिवासियों को मुख्य धारा में लाने की जोकि न बेहद पिछड़े हुए हैं बल्कि नक्सल-वाद के बहकावे में फंसते जा रहे हैं। यदि आदिवासी बीच में न होते तो संभव था कि सरकार आर-पार की लड़ाई लड़ने में में देर न लगाती। सेनाएं लालगढ़ के जंगलों में घुसकर यह युद्ध बहुत पहले ही जीत चुकी होतीं। लेकिन मुश्किल तो यही है कि दुश्मन सीधे तौर पर सामने नहीं है। निर्दोष आदिवासी और नक्सली, यह दो विपरीत तथ्य इस तरह आत्मसात हो चुके हैं कि युद्ध का मतलब होगा ‘घुन के साथ गेंहू का पिसना'। बड़ी तादाद में निर्दोष आदिवासियों के संहार का भय बना रहेगा। और इसी बात का लाभ नक्सल रणनीतिकार बखूबी उठा रहे हैं। उन्होंने बड़ी तादाद में आदिवासियों को बरगलाकर गुरिल्ला वॉर में माहिर कर दिया है। वनाच्छादित लालगढ के हजारों गांवों में बसने वाले लाखों आदिवासी ‘दिन में किसान और रात में सैनिक' वाली भूमिका में आते जा रहे हैं। हाल ही में बस्तर के दंतेवाड़ा में यही हुआ। सीआरपीएफ कैंप पर हमला करने के लिए पिछले एक माह से आस-पास के गांवों में लगभग एक हजार नक्सली पूरे साजोसामान के साथ डेरा डाले हुए थे, लेकिन उन्हें गांव वालों का इतना समर्थन था कि न तो स्थानीय पुलिस को, न ही सुरक्षाबलों को और न ही इंटेलिजेंस को इस बात की भनक लग पाई।
स्पष्ट है कि सलवा-जुडूम जसे आंदोलन चलाने वाली छत्तीसगढ़ सरकार ने आदिवासियों का अबतक मिला थोड़ा बहुत समर्थन भी खो दिया है। इसके पीछे एक बड़ी वजह राज्य सरकार की ताजा औद्योगित नीति भी बताई जा सकती है। इस नीति को नक्सलीयों ने आदिवासी-विरोधी बताते हुए आदिवासियों को अपने खेमे में करने का काम तेज कर रखा है।
दस नवंबर 2009 को जारी अधिसूचना में ‘औद्योगित नीति 2009-२०१४' एक नवंबर 2009 से 31 अक्टूबर २०१४ की अवधि के लिए लागू की गई। इस औद्योगिक नीति का मुख्य ध्येय ‘राज्य के खनिज व वन्य संसाधनों का औद्योगिक उपभोग' और इसके लिए राज्य में औद्योगिक निवेश को प्रोत्साहन देना बताया गया है। ‘औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन हेतु आर्थिक दृष्टि से पिछड़े क्षेत्रों' की सूची में नक्सल-गढ़ के तमाम इलाके (बस्तर- दंतेवाड़ा, नारायणपुर, बीजापुर, जशपुर, सरगुजा, कोरिया, कांकेर और बस्तर के सभी विकासखंड, दुर्ग, राजनांदगांव, धमतरी, रायगढ़, महासमुंद, कबीरधाम, जांजगीर-चांपा, कोरबा के सभी विकासखंड और रायपुर, बिलासपुर के 14 विकासखंडं) शामिल हैं।
नक्सली नेता आदिवासियों को इस औद्योगिक नीति का हवाला देते हुए बरगला रहे हैं कि खनिज और वन संपदा का दोहन करने के लिए सरकार उनकी जमीन और जंगलों पर कब्जा कर लेगी और बड़ी-बड़ी कंपनियां उन्हें अपना गुलाम बना लेंगी। सरकार और नक्सली रणनीतिकारों में ‘माइंड-गेम' चल रहा है। सरकार का पूरा ध्यान आदिवासियों को नक्सली खेमे में जाने से रोकने पर है। उधर, नक्सली भी आदिवासियों को अपने साथ मिलाने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं।
अब तो सरकार तमाम समाचार पत्रों में बड़े-बड़े विज्ञापन जारी कर आदिवासियों से मुख्य धारा में जुड़ने की अपील कर रही है। इन विज्ञापनों में बताया जा रहा है कि किस तरह नक्सलवादियों के शिकंजे में पड़कर आदिवासी पिछड़ते जा रहे हैं। सरकार न केवल विज्ञापनों के माध्यम से बल्कि फिल्मों के माध्यम से भी अशिक्षित आदिवासियों को नक्सलीयों के खेमे में जाने से रोकने की कोशिश में लगी हुई है। गांव-गांव जाकर सरकारी कर्मचारी आदिवासियों को वीडियो पर देशप्रेम पर आधारित फिल्में और विशेष वृत्तचित्र दिखा रहे हैं। वहीं, नक्सली भी पीछे नहीं हैं। नक्सली आदिवासियों को ऐसी हिंदी फिल्में दिखा रहें हैं, जिनमें सरकारी तंत्र को दमनकारी बताया जाता है, जिनमें पुलिस, प्रशासन और नेताओं को भ्रष्ट और गरीबों का शोषण करने वाला बताया जाता है और फिल्म के नायक के पास बंदूक उठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। सूत्रों की मानें तो 90 के दशक में बनीं अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती की कुछेक हिंदी फिल्मों का प्रदर्शन छत्तीसगढ़ के पिछड़े इलाकों में वीडियो के माध्यम से नक्सलीयों द्वारा खुलकर किया जाता है। जाहिर है, इस लड़ाई को जीतने की मुख्य कड़ी ‘आदिवासी' ही हैं। वे जिसके साथ होंगे, उसका पलड़ा भारी होगा।

No comments:

Post a Comment